Nazm

चादर

जब पहाड़ों पर बिछती है बर्फ़ चादर सी

तब तन से आ लिपटती है गर्म चादर सी

कि न रही अब लाज की फ़िकर भी

ऐसी होती है अहसास नर्म चादर की

जब कोई चादर किसी गद्दे पर है जा पड़ती

तब लगती है बिसात उसकी संगेमरमर सी

जब बदलती है वो उसपर करवट सी

तब पड़ती है उसपर रेश्मी सिलवट सी

जब रखती है तकिये पर वो सर अपनी

तब लगती है उसकी ज़ुल्फ़ बादल सी

सोई रहती है वो अंजान बेख़बर सी

न परवाह उसे किसी आहट-सरसराहट की

जब आसमानों पर चाँदनी जाती है बिखर सी

तब याद आती है ग़ज़ल किसी शायर की

शान में क्या कहें उस मक़बूल पेंटर की

जिसने तराशा ये मुकम्मल समा उसके हुनर की

जब चादर ख्वाजा के दर पर है जा पड़ती

तो जैद की तक़दीर जाती है सँवर सी

तब खुल जाती हैं किवाड़ें जन्नत की

और होती है कुबूल धागा-ए-मन्नत भी

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