जो ख़त मोहब्बत के लिखे थे तुमने
अब भी महफ़ूज़ रखे हैं सिरहाने से
जब भी मिल जाती है मुझको चंद मोहलत
पढ लेती हूँ मैं उन्हें बहाने से
जो न पढ सकूँ तो लगा लेती हूँ अंदाज
लब्ज जो मिट चुके हैं आँसुओं के पानी से
तेरे ख़तों की क्या बात ये हैं नायाब
तब तीरे- नज़र जाके लगा निशाने पे
ये है मेरी बेचैन निगाहों का सबब
तुम नहीं आए फिर भी मेरे बुलाने से
ख़त जलाना है तो जला दूँ मेरी जाँ
निशाँ तेरे सब मिट जाएँगे ठिकाने से
अब तो नहीं मुझे रुसवाइयों का डर
कौन करता अब फ़िकर बेदर्द जमाने की
सीने में है यार-ए-दश्त-ए-तसव्वुर
हम तो जीते हैं ख़तों के बहाने से
तेरे-मेरे मिलने की नहीं क़िस्मत
हम चूकते नहीं क़िस्मत को आजमाने से