बात पते की!

मैं पेशे से पत्रकार हूँ और कुछ ही दिनों पहले किसी काम के सिलसिले में मेरा दिल्ली आना हुआ।दो दिन में काम निबटने के बाद मैंने सोचा कि अपने दूर के रिश्तेदार के यहाँ चक्कर लगा लूँ।मेरे रिश्तेदार आला अधिकारी थे और रवीन्द्र नगर इलाक़े में रहते थे। मैंने सोचा मुलाक़ात के बहाने उनसे अपना छोटाबड़ा काम भी करवा लूँगा।उनके घर गया तो उनकी पत्नी ने दरवाज़ा खोला।कहा– “भइया कैसे आना हुआ?”

दिल्ली आया था, सोचा आप लोगों से मिलता चलूँ।”

“ आइए, आइए, कॉफ़ी लेंगे या चाय?”

“चाय चल जाएगी बिना शक्कर की।”

बैठ कर चाय संग कई मुद्दो पर गुफ़्तगू होती रही कि तभी अधिकारी महोदय का आगमन हुआ।

बातों-बातों ही में मैंने अपनी बात कह दी और अधिकारी महोदय न “ठीक है देखता हूँ” कहकर मुझे आश्वस्त किया।

“इजाज़त चाहूँगा, कल मुझे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन सुबह पाँच बजे से ट्रेन भी पकड़नी है,” मैंने कहा।

“आज रात यहीं रुक लो, स्टेशन यहाँ से नज़दीक भी है,” महोदय की पत्नी ने कहा।

“शिकार जब खुद शेर के पास आ रहा है तो तकल्लुफ कैसा,” ये सोच कर मैंने फ़ौरन हाँ कर दी।

अगले दिन मैं अधिकारी महोदय की सरकारी गाड़ी से स्टेशन की ओर रवाना हुआ।

“साहब के यहाँ कितने दिनों से गाड़ी चला रहे हो?” बातों ही बातों में मैंने ड्राईवर से पूछ दिया।

“जी हमारी कम्पनी का कान्ट्रैक्ट जब तक है तब तक।”

“कहाँ के रहने वाले हो?”

“जी मुज़फ़्फ़रपुर बिहार का।”

“हम भी तो उधर ही के हैं।”

“मैं जाति का भुमिहार ब्राह्मण हूँ।”

“हम लोग भी।”

“आपका गोत्र किया है?”

“मेरा शान्डिल्य है और तुम्हारे साहब का गौतम।”

“मेरा भी गोत्र गौतम है; तब तो साहब मेरे रिश्तेदार हुए। हम एक ही ऋषि के वंशज हुए।”

स्टेशन आ चुका था। मैंने सोचा “आदमी अगर कामयाब हो तो उसके कई रिश्तेदार निकल आते हैं वरना हम जैसों को तो सगे भी पहचानने से इन्कार कर देते हैं।”

2 thoughts on “बात पते की!

  1. सच है। लेकिन लेखक को कामयाबी की क़ीमत और कामयाबी की नवैयत को भी आंखों में रखना चाहिए।
    और तब कहानी की संवेदना लोगों को छूने लगती है।
    शैली काफी अच्छी है। पैनापन पैदा करना है।

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