पवन रति का दीवाना था। रोज़ कई दफ़ा वह रति की गलियों के चक्कर लगाता था और इस बात का इंतज़ार करता था कि रति बालकनी से झाँके और उसके चाँद से चेहरे का दीदार हो। रति को पवन पसंद था पर वह इसको मानने से कतराती थी पर पवन भी कहाँ हार मानने वाला था। उसने रति को अपना बना के ही छोड़ा। वे दोनों घर वालों से छिप कर मिलने लगे। शुरू के दिनों में वे कम मिलते थे पर धीरे-धीरे उनकी मुलाक़ातों का सिलसिला बढ़ने लगा। रति भी पवन को बेहद चाहने लगी थी। पवन की नौकरी लग गई और वह रति पर कम ध्यान देने लगा। वह सारा दिन अपने काम को ही लेकर उलझा रहता।रति ने पवन का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश की पर पवन उससे दूर होता चला गया।रति बहुत रोई। वह पवन के बिना न रह पाती थी। उसने पवन से रिश्ता जोड़े रहने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी पर अफ़सोस। समय के साथ रति ने भी पवन को भुला दिया और उनकी प्रेम कहानी का अंत हो गया।
रति को यह अहसास हुआ कि जिसे वह इश्क समझ बैठी थी, दरअसल वह इश्क नहीं था बल्कि आदत थी। धीरे- धीरे उसे पवन की आदत लग चुकि थी और यह आदत जाते जाते ही जाती है। हम भी अक्सर जिसे प्यार समझ बैठते हैं वह प्यार नहीं बल्कि आदत है।
असली मोहब्बत तो वो है जो चौबे जी को कथ्था, चुना, सुपारी लौंग और तंबाकू वाले बनारसी पान से है। इसकी चाह में वे कितने ही वर्षों से चौरसिया पान वाले के यहाँ चक्कर लगा रहे है। अमूमन लोगों को वह ही होता है जिसे हम अंग्रेज़ी भाषा में “क्रश” कहते हैं। कल राकेश पर थी, आज मोहन पर तो कल विनोद पर होगी।