गजल
ये जानती हूँ मैं सनम तुम्हें भी प्यार है सही
सनम ये बात और है कहा नहीं कभी मगर
जमाने की सदा-सदा मुझपे उठी हैं उँगलियाँ
यूँ बेरुख़ी से अब तेरी हो जाँए हम रुसवा अगर
सदा तेरी तलाश में फिरा किया इधर-उधर
मिला मुझे यहीं इधर ढूँढा जिसे नगर-नगर
कई मुक़ाम बाक़ी भी अभी फ़तह हैं करने को
रक़ीब साथ दो मेरा हो मेरी भी आँसा डगर
उठ जाएगा यक़ीन भी जमाने का इमाम से
यूँ बेरुख़ी से भी तेरी हाँ मर गया जो मैं अगर