मोढा

हिन्दी कविता

साहब को जब दफ़्तर जाना हो

तो जूते पहनने के काम आता यह मोढा,

बड़ी ही मुफ़ीद चीज़ है

मेमसाहब के श्रृंगार के दौरान यह मोढा;


काम आ जाए पंखों की सफ़ाई में,

यह बच्चों का भी बड़ा सगा भाई है।

फिर चाहे रखी हो कोई चीज़ ताख पर,

औरतें दरीचे से आवाजाही देखती झाँककर!


हो अगर किसी के स्थानांतरण की ख़बर,

नहीं रहता इसके टूटने-फूटने का डर।

वज़न में भी है बिलकुल हल्का-फुल्का,

सोफ़े की शान है पर यह मोढा है काम का;


नमक की तरह है, चीज़ों के अस्तित्व में घोल दे स्वाद,

बनना है तो इसके जैसा बनो, यह मोढा है लाजवाब!

पर बच्चों संभलकर करना इसकी चढ़ाई,

हड्डी-पसली एक होगी अगर क़दम लड़खड़ाई!

मंजरी

Manjari Narayan

2 thoughts on “मोढा

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