देख कर दीवार की घड़ी
मैं दफ़्तर को निकल पड़ी
खड़ी थी भीड़-भाड में
बस पर सवार मैं
एक नौजवान ने बड़ी ज़हमत की
उठ खड़े हो मुझे अपनी सीट दी
सामने खुले झरोखे से
सर्द हवा छू गई मुझे धोखे से
बस निकल पड़ी रफ़्तार से
गुजरते एक बाज़ार से
चलते चलते अचानक मेरी नज़र उस चीज़ पर पड़ी
जिसको देख मेरी आँखें रह गईं फटी की फटी
शीशे की आग़ोश में
था एक पुतला दिलकश लिबास में
लिबास का रंग कुछ गाढ़ा था
जैसे सुरमई बादलों का जमावड़ा था
उस पर सीप और मोती थे जड़ें
और फूल कढ़े थे चमकीले सुनहले
ऐसा तो कभी-कभी ही होता है इत्तिफ़ाक़ से
कुछ भा जाता है हमें एक आँख में
पर करती भी क्या करती
थी दफ़्तर पहुँचने की जल्दी
सारा दिन मेरी जान अटकी थी
उस आलीशान दुकान की खिड़की में
सोच कर ऐसा लगता था मानो
उस लिबास को मेरे लिए ही कढ़ा हो
बार-बार निहारूँ मैं घड़ी
जाने कब होगी मेरी तमन्ना पूरी
जैसे गुजरते बादलों के बीच कहकशाँ
लगूँगी मैं आम से अप्सरा
जैसे जैसे घड़ी का काँटा बढ़ने लगा
मेरे सब्र का बांध भी उतरने लगा
जा पहुँची मैं उस दुकान पर
जहाँ पोशाक टंगी थी शान से
दुकान पहुँचकर मुझे हुई हैरत
वो लिबास था दुकान से नदारद
दुकानदार ने दिखाई ऐसी चीजें जिससे सबका सर चकरा जाए
पर कुछ भी ऐसा नहीं जो मेरे मन को भी जाए
मेरे चेहरे पर छाई थी मायूसी
जैसे जंग में हारा एक सिपाही
चल पड़ी मैं घर की ओर पाँव घिसते
एक और आरज़ू रह गई पूरी होने से
अक्सर ज़िन्दगी में हो जाता है ऐसा
हम चाहते हैं जिसे दिलो-जान से, हो जाता है किसी और का